आज हम इस पोस्ट की मदद से हजरत इमाम हुसैन इबने अली के बारे मे जानेगे. यह full story को हमने भागो मे बाँट दिया है ,इसको detail मे पड़ने के लिए हर एक पार्ट को read करे ,हजरत मुहम्मद allaha ke रसूल फरमाते है l ki मे हुसैन से हूँ ,हुसैन मुज़से ,जिसने हुसैन से मुहब्बत की उसने मुज़से मुहब्बत की इमाम हुसैन की जिंदिगी ,biography और इमाम हुसैन के quet ,imam hussain ki shadat ka waqia

इमाम हुसैन इब्न अली

इमाम हुसैन कौन थे ?who was imam hussain?
हज़रत हुसैन (अल हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब, यानि अबी तालिब के पोते और अली के बेटे अल हुसैन,626 हि. -680 हि.) हज़रत अली अल्हाई सलाम दूसरे बेटे थे और इस कारण से पैग़म्बर मुहम्मद [prophet)के नाती। आपका जन्म मक्का में हुआ। उनकी माता का नाम फ़ातिमा ज़हरा (नबी की बेटी) था।
हज़रत हुसैन को इस्लाम में एक शहीद का दर्ज़ा प्राप्त है। वे यज़ीद प्रथम के कुकर्मी शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए सन् 680 AH में कुफ़ा के नजदीक कर्बला की लड़ाई में शहीद कर दिए गए थे। उनकी शहादत के दिन को आशूरा (दसवाँ दिन) कहते हैं ,और इस शहादत की याद में मुहर्रम (उस महीने का नाम) मनाते हैं। तो चलिये जानते सारे वाक्य को
यजीद
पलीव
की
तख्तनशीनी और
क़ियामत
के
सामान
हिजरत का साठवां साल और रजब का महीना कुछ ऐसा दिल दुखाने वाला सामान अपने साथ लाया, जिस का नज़ारा इस्लामी दुन्या की आंखों को नाचार उस तरफ खींचता है, जहां कलेजा नोचने वाली आफ्तों, बेचैन कर देने वाली तकलीफ़ों ने दीनदार दिलों के बे कुरार करने और ख़ुदा परस्त तबीअतों को बेताब बनाने के लिये हसरत व बेकसी का सामान जम्अ किया है। यज़ीद पलीद का तख़्ते सल्तनत को अपने नापाक कदम से गन्दा करना उन ना काविले बरदाश्त मुसीबतों की तम्हीद है जिन को बयान करते कलेजा मुंह को आता और दिल एक गैर मामूली बे करारी के साथ पहलू में फड़क जाता है। इस मरदूद ने अपनी हुकूमत की मज़बूती, अपनी ज़लील इज्ज़त की तरक्की इस अम्र में मुन्हसिर समझी कि अहले बैते किराम * के मुकद्दस व वे गुनाह खून से अपनी नापाक तल्वार रंगे। इस जहन्नमी की निय्यत बदलते ही ज़माने की हवा ने पलटे खाए और ज़हरीले झोंके आए कि जाविदां बहारों के पाक गिरेबां, बे खजां फूलों, नौ शगुफ्ता गुलों के गम में चाक हुवे, मुस्तफा Sallahualihiwasalamकी हरीभरी लहलहाती फुलवाड़ी के सुहाने नाजुक फूल मुरझा मुरझा कर ताज़े दामने खाक हुवे ।
(इमामे हसन की शहादत और भाई को नसीहत )
इस ख़बीस का पहला हुम्ला सय्यिदुना इमामे हसन पर चला। जादा (जौजए इमामे आली मकाम) को बहकाया कि अगर तू जहर दे कर इमाम का काम तमाम कर देगी तो मैं तुझ से निकाह कर लूंगा।
आईनए कियामत 21 वोह शक्रिया बादशाह वेगम बनने के लालच में शाहाने जन्नत का साथ छोड़ कर, सल्तनते उक्बा से मुंह मोड़ कर
जहन्नमकी राह पर हो ली। कई बार ज़हर दिया कुछ असर न हुवा, फिर तो जी खोल कर अपने पेट में जहन्नम के अंगारे भरे और इमामे जन्नत मक़ाम को सख़्त तेज़ जहर दिया यहां तक कि मुस्तफ़ा जाळलोग जब के जिगर पारे के आ जाए बातिनी पारा पारा हो कर निकलने लगे।
येह बेचैन करने वाली खबर सुन कर हज़रते इमामे हुसैन अपने प्यारे भाई के पास हाज़िर हुवे। सिरहाने बैठ कर गुज़ारिश की "हज़रत को किस ने जहर दिया?" फ़रमाया : “अगर : वोह है जो मेरे खयाल में है तो अल्लाह बड़ा बदला लेने वाला है, और अगर नहीं, तो मैं वे गुनाह से इवजु नहीं चाहता।
एक रिवायत में है, फ़रमाया : "भाई ! लोग हम से यह उम्मीद रखते हैं कि रोजे कियामत हम इन की शफाअत फरमा कर काम आएं न येह कि इन के साथ ग़ज़ब और इन्तिकाम को काम में लाएं।" वाह रे हिल्म कि अपना तो जिगर टुकड़े हो फिर भी ईजाए सितमगर के रवादार नहीं
फिर जाने वाले इमाम ने आने वाले इमाम को यूं वसिय्यत फ़रमाई : "हुसैन ! देखो सफा कृपा से डरते रहना, मवादा वोह तुम्हें बातों में ले कर बुलाएं और वक्त पर छोड़ दें, फिर पछताओगे और बचाव का वक्त गुज़र जाएगा।"
बेशक इमामे आली मकाम की बेह वसिष्यत मोतियों में तोलने के काबिल और दिल पर लिख लेने के लाइक थी, मगर उस होने वाले वाकिए को कौन रोक सकता ? जिसे कुदरत ने मुद्दतों पहले से मशहूर कर रखा था।
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इमाम अली मक़ाम |
इमामे हुसैन की शहादत की ख़बर वाकिअए करबला से पहले ही मशहूर थी
हजुर सरवरे आलम की विअसत शरीफ से तीन सो बरस पेशतर येह शे'र एक पथ्थर पर लिखा मिला
क्या हुसैन के क़ातिल येह भी उम्मीद रखते हैं कि रोज़े क़ियामत उस के नाना की शफाअत पाएं ? येही शे'र अर्जे रूम के एक गिर्जा में लिखा पाया गया और लिखने वाला मालूम न हुवा। कई हदीसों में है हुजूर सरबरे आलम उम्मुल मोमिनीन हज़रते उम्मे सलमा के काशाने में तशरीफ़ फ़रमा थे, एक फ़िरिश्ता कि पहले कभी हाज़िर न हुवा था अल्लाह तबारक व तआला से हाज़िरी की इजाजत ले कर आस्तान बोस हुवा, हुजूरे पुरनूर Sallahualiwasalam ने उम्मुल मोमिनीन (raziallahu tala anha) से इरशाद फ़रमाया : दरवाज़े की निगहबानी रखो, कोई आने न पाए, इतने में सय्यदुना इमामे हुसैन दरवाज़ा खोल कर हाज़िरे ख़िदमत हुवे और कूद कर हुज़ूरे पुरनूर की गोद 14 में जा बैठे, हुजूर sewa प्यार फ़रमाने लगे, फ़िरिश्ते ने अर्ज़ की हुजूर इन्हें चाहते हैं फरमाया हां अर्ज की "वोह वक्त करीब आता है कि हुजूर की उम्मत इन्हें शहीद करेगी और हुज़ूर चाहे तो वोह जमीन हुजूर को दिखा दूं जहां येह शहीद किये जाएंगे। :
23. फिर सुख मिट्टी और एक रिवायत में है रैत, एक में है कंकरियां, हाजिर की हुजूर ने सूंघ कर फरमाया: बेचैनी और बला की बू आती है, फिर उम्मुल मोमिनीन को वोह मिट्टी अता हुई और इरशाद हुवा : "जब येह खून हो जाए तो जानना कि हुसैन शहीद हुवा।" उन्हों ने वोह मिट्टी एक शीशी में रख छोड़ी। उम्मुल मोमिनीन फरमाती हैं : "मैं कहा करती जिस दिन हम ख़ून हो जाएगी कैसी सख्ती का दिन होगा!"
(अमीरुल मोमिनीन razilahu tala anha मौला अली सिफ्फीन को जाते हुवे ज़मीने करबला पर गुजरे, नाम पूछा। लोगों ने कहा : "करबला !” यहां तक रोए कि ज़मीन आंसूओं से तर हो गई फिर फ़रमाया मैं ख़िदमते अवदस हुजूर सविदे आलम में उनको जन में हाज़िर हुवा। हुजूर को रोता पाया, सबब पूछा। फ़रमाया : "अभी * जिब्रील कह गए हैं कि मेरा बेटा हुसैन फुरात के किनारे करबला में क़त्ल किया जाएगा, फिर जिब्रील ने वहां की मिट्टी मुझे सूंघाई मुझ से जब्त न हो सका और आंखें वह निकली।"
एक रिवायत में है मौला अली उस मकाम से गुज़रे जहाँ अब इमामे मज़लूम की कब्र मुबारक है, फरमाया यहाँ है, उन की सुवारियां बिठाई जाएंगी, यहां उन के कजावे रखे जाएंगे, और यहां उनके खून गिरेंगे। आले मुहम्मद के कुछ नौ जवान इस मैदान में क़त्ल होंगे जिन पर ज़मीनो आस्मां रोएँगे
इमामे मज़लूम से मदीना छूट रहा है
इमामे हसन का काम तमाम कर के जब यज़ीद पलीद ने अपने नाशाद दिल को खुश कर लिया, अब इस शक़ी को इमामे हुसैन याद आए, मदीने के सूबादार वलीद को खत लिखा कि
हुसैन और अब्दुल्लाह इब्ने उमर और अब्दुल्लाह इब्ने जुबैर रजियाल्ल्हु ताला अनहु से बैअत के लिये कहे और मोहलत न दे। ॐ इब्ने उमर एक मस्जिद में बैठने वाले आदमी हैं और इब्ने जुबैर जब तक मौअन पाएंगे खामोश रहेंगे, हां हुसैन को जारी से बैअत लेनी सब से ज़ियादा ज़रूरी है कि येह शेर और शेर का बेटा मौक़ का इन्तिज़ार न करेगा।
सूबादार ने ख़त पढ़ कर पयामी भेजा, इमाम ने फ़रमाया : "चलो आते हैं।" फिर अब्दुल्ला इब्ने जुबैर से फ़रमाया : "दरबार का वक्त नहीं, वे
वक्त बुलाने से मालूम होता है कि सरदार ने बत पाई, हमें इस लिये बुलाया जाता है कि मौत की ख़बर मशहूर होने से * पहले यज़ीद की बैअत हम से ली जाए।" इब्ने जुबैर ने अर्ज़ की "मेरा भी येही ख़याल है ऐसी हालत में आप की क्या राए है ?" फ़रमाया : "मैं अपने जवान जम्भु कर के जाता हूं, साथियों को दरवाज़े पर बिठा कर उस के पास जाऊंगा।" इब्ने जुबैर ने कहा : "मुझे उस की जानिब से अन्देशा है।" फ़रमाया : "वोह मेरा कुछ नहीं कर सकता।" फिर अपने अस्हाब के साथ तशरीफ़ ले गए, 'हमराहियों को हिदायत की "जब मैं बुलाऊं या मेरी आवाज बुलन्द होते सुनो, अन्दर चले आना और जब तक मैं वापस न आऊं कहीं हिल कर न जाना।" येह फ़रमा कर अन्दर तशरीफ ले गए, वलीद के पास मरवान को बैठा पाया, कर के तशरीफ़ रखी,
25.खत पढ़ कर सुनाया वोही मज़मून पाया जो हुज़ूर के खयाल शरीफ़ में आया था। बैअत का हाल सुन कर इरशाद हुवा :
"मुझ जैसे छुप कर बैअत नहीं करते, सब को जम्अ करो, बैअत लो, फिर हम से कहो "
वलीद ने ब नज़रे आफिय्यत पसन्दी अर्ज की : "बेहतर! तशरीफ़ ले जाइये।" मरवान बोला "अगर इस वक्त इन्हें छोड़ देगा और • वैअत न लेगा तो जब तक बहुत सी जानों का खून न हो जाए ऐसा वक्त हाथ न आएगा, अभी रोक ले बैअत कर लें तो खैर वरना गर्दन मार दे।" येह सुन कर इमाम ने फ़रमाया :
"इब्नुज्जुरका ! तू या वोह, क्या मुझे क़त्ल कर सकता है ? खुदा की कसम ! तू ने झूट कहा और पाजीपन की बात की।" येह फ़रमा कर वापस तशरीफ़ लाए।
मरवान ने वलीद से कहा "ख़ुदा की कसम मौकअ न मिलेगा।" वलीद बोला : “मुझे पसन्द नहीं की बैअत न * करने पर हुसैन को कुत्ल करूं, मुझे तमाम जहां के मिल्क व माल के बदले में भी हुसैन का कत्ल * मन्जूर नहीं, मेरे नजदीक हुसैन के खून का जिस शख्स से मुतालबा होगा वोह क़ियामत के दिन खुदाए क़हार के सामने हल्की तोल वाला है।" मरवान ने मुनाफ़िकाना तौर पर कह दिया :
"तू ने ठीक कहा। "
दोबारा आदमी आया, फ़रमाया :
"सुबह होने दो।" और कस्द फ़रमा लिया की रात में मक्के के इरादे से मअ अलो झ्याल सफ़र फ़रमाया जाएगा।
येह रात इमाम ने अपने जड़े करीम (a) के रौज़ए मुनव्वरा में गुज़ारी कि आखिर तो फ़िराक़ की ठहरती है चलते वक्त तो अपने जड़े करीम व जेवाको जन
26 .की मुक़द्दस गोद से लिपट लें फिर खुदा जाने ज़िन्दगी में ऐसा वक्त मिले या न मिले। इमाम आराम में थे कि ख़्वाब देखा, हुजूरे पुरनूर अनी उन जोबांची जर्मन तशरीफ लाए हैं और इमाम को कलेजे से लगा कर फ़रमाते हैं:
"हुसैन वोह वक्त करीब आता है कि तुम प्यासे शहीद किये जाओ और जन्नत में शहीदों के बड़े दरजे हैं। " येह देख कर आंख खुल गई, उठे और रौज़ए मुकद्दस के सामने रुखसत होने को हाज़िर हुवे ।
मुसलमानो ! हयाते दुन्यावी में इमाम की येह हाज़िरी पिछली
हाज़िरी है, सलातो सलाम अर्ज करने के बाद सर झुका कर खड़े हो गए हैं, गमे फ़िराक़ कलेजे में चुटकियां ले रहा है, आंखों से लगातार आंसू जारी हैं, रिक्क्त के जोश ने जिस्मे मुबारक में रअशा दिया है, बे कुरारियों ने महशर बरपा कर रखा है, दिल कह जाए, मगर यहां से क़दम न उठाइये, सुब्ह के खटके का तकाजा है। जल्द तशरीफ़ ले जाइये, दो क़दम जाते हैं और फिर पलट आते हैं।
हुब्बे वतन कदमों पर लौटती है कि कहां जाते हो ? गुर्बत दामन खींचती है क्यूं देर लगाते हो ? शौक की तमन्ना है कि उम्र भर न जाएं, मजबूरियों का तकाजा है दम भर न ठहरने पाएं।शाबान की चौथी रात के तीन पहर गुज़र चुके हैं और पिछले के नर्म नर्म झोंक सोने वालों को थपक थपक कर सुला रहे हैं, * सितारों के सुन्हरे रंग में कुछ कुछ सपेदी जाहिर हो चली है, अंधेरी रात की तारीकी अपना दामन समेटना चाहती है।
तमाम शहर में सन्नाटा है, न किसी बोलने वाले की आवाज़ कान तक पहुंचती है, न किसी चलने वाले की पहचल सुनाई देती है, शहर भर के दरवाजे बन्द हैं, हां खानदाने नबुव्वत के मकानों में इस वक्त जाग हो रही है और सामाने सफ़र दुरुस्त किया जा रहा है, ज़रूरत की चीजें बाहर निकाली गई हैं, सुवारियां दरवाज़ों पर तय्यार खड़ी हैं, महमिल (कजावे) कस गए हैं,
27.पर्दे का इन्तिज़ाम हो चुका है, उधर इमाम के बेटे, भाई, भतीजे, घरवाले सुवार हो रहे हैं इधर इमाम मस्जिदे नबवी से बाहर तशरीफ लाए हैं। मेहराबों ने सर झुका कर तस्लीम की मीनारों ने खड़े हो कर ताज़ीम दी क़ाफ़िला सालार के तशरीफ़ लाते ही नवीजादों का काफिला रवाना हो गया है।
मदीने में अहलेबैत से हज़रते सुगुरा (इमामे मलूम की साहिबज़ादी) और जनाब मुहम्मद बिन हनफिय्या (मौला अली के बेटे ) बाकी रह गए ।
! एक वोह दिन था कि हुजूर सरवरे आलम रंग ने काफ़िरों की ईज़ादेही और तकलीफ़ रसानी की * वजह से मक्कए मुअज्जमा से हिजरत फ़रमाई।
मदीने वालों ने जब येह खबर सुनी, दिलों में मसरंत आमेज उमंगों ने जोश मारा और आंखों में शादिये ईद का नक्शा खिंच गया, आमद-आमद का इन्तिजार लोगों को आबादी से निकाल कर पहाड़ों पर ले जाता, मुन्त मक्के की राह को जहां तक उन की नजर पहुंचती, टिकटिकी बाध कर तकतीं, और मुश्ताके दिल हर आने वाले को दूर से देख कर चौंक पड़ते, जब आफ़ताब गर्म हो जाता, घरों पर वापस आते। इसी कैफिय्यत में कई दिन गुज़र गए, एक दिन और रोज़ की तरह वक्त बे वक्त हो गया था और इन्तिज़ार करने वाले हसरतों को समझाते, तमन्नाओं को तस्कीन देते पलट चुके थे, कि एक यहूदी ने बुलन्दी से आवाज़ दी
: "ऐ राह देखने वालो ! पलटो ! तुम्हारा मक़सूद बर आया और तुम्हारा मतलब पूरा हुवा।" इस सदा के सुनते ही वोह आंखें जिन पर अभी हसरत आमेज़ हैरत छा गई थी, अश्के शादी, बरसा चलीं, वोह दिल जो मायूसी से मुरझा गए थे, ताज़गी के साथ
imam hussain ibn ali our karbala ka waqia
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